Dhanka/Dhanak /धाणका/धानक Hill Tribe

Dhanka/Dhanak




जनजाति का अर्थ :-
उपरोक्तानुसार विविध कार्यों में जीविकोपार्जन के लिये धानका जन के सदस्यो का एक से अधिक काम करना इसी बात का संकेत है कि जाति-जनजाति को पहचानने के प्रमुख मापदंडो में एक मापदंड यह भी है कि हमारे देश मे जातियो के नामो का निर्धारण उसके कर्म विशेष कार्य से भी माना गया है। ठीक इसी प्रकार जाति का एक निश्चित् काम होता है लेकिन जनजाति के लोग एक से अधिक काम अर्थात उनके पेशे पर कोई नियन्त्रण नही होता। इसी के फलस्वरूप कि धानका जन जनजाति (Tribe) वर्ग के है परिलक्षित होता है।

धानका जनजाति का उद्‌गम तत्कालीन राजपूताना प्रान्त से हैं। धानका जनजाति की उत्पति के बारे में किंवदन्ती है, जो जागा/भाट से प्राप्त जानकारी पर आधारित हैं। धानका जनजाति के पूर्वज चद्रवंशी राजपूत मूल बयानागढ़ के थें, बयानागढ़ पर बादशाह गौरी मोहम्मद ने आक्रमण किया। आक्रमण से घबराकर धानका जन को अपने परिवार सहित जान बचाकर जंगल, पहाड़ियो, घाटियो में आश्रय लेना पड़ा। उदर पूर्ति के लिए घटिया धान (अपेक्षाकृत खराब या कम दाम का) पर निर्वाह करने लगें। यद्यपि धर्नुधारी होने से इन्हें धानका कहा जाने लगा। आक्रमण से घबराए, धर्नु विद्या में निपुण धानका जन जो भूमिहीन हो चुके थे। साहस बांधकर परिवार की जिविका के लिए वन संम्पदा से उत्पन्न बांस से धनुष-बाण, बांस आधरित सामान, खेती मजदूरी करने लगे। मजबूरी वश धानका जन महिलाओं को अपने परिवार की जिविका के लिए प्रसव पीड़ा से ग्रस्त महिलाओं को मुक्ति दिलाने का कार्य भी करना पड़ा। कालान्तर में वन सम्पदा पर आधारित निर्भर आजिविका के संसाधनो में कमी आने लगी पूर्वजों को विवश होकर अन्य क्षेत्रो में रोजगार की तलाश में भटकना पड़ा। राजपूताना प्रान्त से कबीलों के रूप में धीरे-धीरे निकल कर धानका जन बाहरी क्षेत्रों में काम की तलाश में आये इन लोगो ने अपने परिवार की संरक्षा व सुरक्षा के लिये ऐसे स्थान को अपने रहवास के लिये चुना जो पहले से ही आदिवासी बस्ती से आबाद था। जैसा कि इतिहास साक्षी है स्वतंन्त्रता के पुर्व अनुसूचित वर्ग पर सांमतवादी ताकतो के शोषण व दमन का प्रभाव था, प्राचीन काल में वर्तमान मध्य प्रदेश के उज्जैन संभाग का यह हिस्सा राजपूताना प्रान्त के मॅवाड क्षेत्र के रूप में भी अधिसूचित रहा हैं, जो मुगलकालीन राजस्थान भी कहलाता था।स्वतंत्रता के पूर्व भारत में धानका जनजाति का नाम Criminal Classes in Bombay Presidency की किताब जिसका प्रकाशन सन 1908 में हुआ था, किताब में The forest and Hill Tribes are as follows मैं चिन्हित जनजातियो में Dhanka जनजाति का नाम होने के साथ ही किलाच में धानका जन के किया कलापों कि जानकारियों में पृष्ठ क्रमाक 44 पर टिप्पणी कुछ इस प्रकार थी Those living in the plains and Dhankas of the hills, Commit house breaking and theft and are given in looting goods, trains during times of scarcity.

करते हैं। कि उन्होने उस लाल माटी में जन्म लिया है जिसमें उनके पूर्वजो की जन्म व कर्म-स्थली में स्वाधीनता संग्राम का आगाज हुआ था। अप्रैल 1857 में गर्वनर के तत्कालीन एजेन्ट हेनरी डयूरेड को इंन्दौर में खबर मिली की बनारस से देशी सेना का एक सिपाही सैनिको को विद्रोह के लिये प्रोत्साहित करने हेतु आया है। महू में देशी सैनिको ने मई 1857 के दूसरे सप्ताह में इंन्दौर छावनी पर आक्रमण करने का निश्चय किया, और होल्कर सेना से गुप्त बातचीत प्रारम्भ कर दी। अंग्रेज सरकार सतर्क थी। लेकिन 03 जून 1857 को नीमच रोजा तथा घुड़सवार टुकड़ियों ने सायः 6 बजे विद्रोह का झण्डा बुलन्द कर दिया। उन्होने नीमच जवनी के चंगलों में आग लगा दी, और किले पर अधिकार करने का प्रयास किया। लेकिन उदयपुर के कर्नल सी. एन. शावर्स ने राजपूत सैनिको का साथ लेकर भीमच के किले पर अधिकार कर लिया। उसने निम्बाहेडा को, जो अंग्रेजो के गले की हट्टी बना हुआ था, उसे भी ध्वस्त कर दिया। महिदपुर, मंन्दसौर तथा अन्य स्थानो से चिद्रोही सैनिक नीमय पर आक्रमण करते रहे। यद्यपि वे सफल न हो सके। विधि की विडम्बना देखिये कि जिस स्थान को अंग्रेजों ने देशी रियासतो की नकेल के रूप में चयन किया वहीं सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की द्वितीय गोली चली। नीमच को स्वतंगाला युद्ध की द्वितीय चित्रणारी छेड़ने का गौरव प्राप्त है, और इस बात का गर्व है कि इस संग्राम के सैनिको को जिन बढ़ के वट वृक्षों पर 27 वीरों को फांसी पर बुलाया गया वह स्थान व वह बड़ वट वृक्ष आज भी हमारे बीच नीमच नगर के छोर पर गरिमा से रक्षक के रूप में अपना सिर ऊंचा किए खड़े हैं। स्वर्तन्त्र भारत का एक गौरवपूर्ण नीमच नगर अपनी गरिमा लिए चौमुखी विकास हर क्षेत्र में पूर्ण कर रहा है। स्वाधीनता संग्राम संघर्ष की प्रथम गवाह मालवा क्षेत्र में नीमच की लाल माटी को नीमच में बसे धानका जन शत्-शत् नमन करते हैं।

स्वतंत्रता के पूर्व भारत में धानका जनजाति का नाम Criminal Classes in Bombay Presidency की किताब जिसका प्रकाशन सन 1908 में हुआ था, किताब में The forest and Hill Tribes are as follows मैं चिन्हित जनजातियो में Dhanka जनजाति का नाम होने के साथ ही किलाच में धानका जन के किया कलापों कि जानकारियों में पृष्ठ क्रमाक 44 पर टिप्पणी कुछ इस प्रकार थी Those living in the plains and Dhankas of the hills, Commit house breaking and theft and are given in looting goods, trains during times of scarcity.

भारत के अन्दर ब्रिट्रिश शासन आया अंग्रेजो ने भारत में विकास की राह में अनुसूचित समूह जो इतिहास के पन्नों में अलग-थलग पड़े हैं। उन पर ध्यान केन्द्रित कर उन्हे जीविकोपार्जन चलाने के लिये रोजगार देकर विकास की मुख्य धारा से ओहने का प्रयास किया, इसी तारतम्य में धानका जनजाति के लोग सेना में अधिक से अधिक भर्ती हुए इसका कारण शारीरिक बनावट के साथ अचूक निशानेबाजी रही है। इन्हें एक प्राचीन धनुर्धारी जाति माना जाता है। धानका जनजाति के सदस्य कुशल सैनिक और योद्धा भी रहे है, इस जनजाति के सदस्यों को कई राजा-महाराजाओ ने गुलाम बनाकर रखा। इसका परिणाम यह हुआ कि धानका जनजाति में स्वामी भक्ति के गुणों का जन्म हुआ, ये अपने मालिक के लिये अपने प्राण तक निछावर करने से नहीं चूकते थे। सैनिक गुणो के बावजूद धानका जनजाति में क्षत्रियों जैसी सामजिकता का अभाव रहा यही कारण है, कि धानका जनजाति का स्तर निरन्तर गिरता चला गया। इनके स्वाभिमान की उपेक्षा स्वामी भक्ति में बदलने से इन्हे गुलाम प्रवृति का अहसास होने लगा, उससे विमुख होकर कार्य कुशलता के नैसर्गिक गुणो से भरपूर इस जनजाति में अंह‌कार होने से किसी का नेतृत्व स्वीकार न करने के कारण इन्हे आलसी बना दिया। जिसका प्रमाण Criminal Classes in Bombay presidency किताब में पृष्ठ क्र. 40 पर The Dhankas of Taloda are a Lazy, Indolent Class के रूप में अभिलिखित हुआ, इन्हें आलस्य श्रेणी में शुमार किया गया। जो कुछ-कुछ धानकाओ में आज भी नज़र आता है।

अंग्रेजो को इनकी स्वामी भक्ति व स्वाभिमान की जानकारी के साथ कि धानका जन एक अच्छे पुड्सवार सैनिक भी रहे हैं। ध्यान में आया। जैसा कि धानकाओ के पितृ-पुरुषो द्वारा धानका जन के बालक-बालिकाओ की जिज्ञासापूर्ण सवालो में कि नीमच में ब्रिट्रिश शासन काल में स्थायित्व कैसे हुआ, बताने पर कि We were good horsemen and it was for this reason that the British soldiers when saw our skills employed us in their service as to look after their Cavalry and it was with them

that our forefathers came and settled at Nimach. नीमच में धानकाओ के नाम से प्रसिध्द दो मोहल्ले हैं, जो धानकर जाति के नाम से जाने

व पहचाने जाते है, एक छावनी व दूसरा बघाना में धनेरिया रोड पर स्थित है। जो नगरपालिका के संम्पतिकर रिकार्ड में दर्ज हैं। The name of mohalla returns as "Dhanka Mohalla" since the time of Britishers indicates that all the resaiding people are registered under the scheduled tribe "Dhanka" since the Britishers time.

क्या? नीमय में निवासरत धानका जन जनजाति के थे, इसका प्रमाण जीमव में निवासरत धानका जन के पितृ-पुरुष स्वःश्री रामप्रसाद पिता मुखराम जी जो रेल्वे में कार्यरत होकर प्रतिनियुक्ति के द्वारा द्वितीय विश्व युध्द में सेना में भर्ती होकर दिनांक 19 जुलाई 1943 से 29 सितंबर 1945 तक कार्यरत रहे। सेना से हिस्वार्ण प्रमाण-पत्र में Class- Hindu, Tribe Dhanka लिखा जामा सिद्ध करता है, कि भारत के कई हिस्सों में बसे थामका जन जनजाति श्रेणी के हैं।
(नीमच में निवासरत धानका जनजाति के पितृ-पुरुष स्वःश्री रामप्रसादजी पिता स्वःश्री मुखराम जी का सेना में कार्बोपरान्त डिस्वार्ज प्रमाण-पत्र का अंश जिसमें स्पष्ट तथा उल्लेख हैं कि भारतवर्ष की स्वर्तन्त्रता से पूर्व भी धानका जन जनजाति कहलाते थे।

"धानका कौन हैं".....

" धानका में प्रचलित एक किंवदंती की अनुसार वे मूल पावागढ़ (गुजरात राज्य के पंचमहाल ज़िले में एक स्थान है जहाँ 51 शक्तिपीठ में से एक महाकाली का एक प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है) के चौहान राजपूत' थे। अम्बा माँ के शाप के कारण पावागढ़ के पाटय वंश के राजा जय सिंह का मुहम्मद बेगडा द्वारा पतन होने पर उसके सैनिकों ने भागकर जंगलों, घाटियों और खेतों में आश्रय लिया और वे धान पर निर्वाह करने लगे इसलिए वे धानका कहलाए। इनमें से कुछ नर्मदा नदी के किनारे बस गए इसलिए वे तटवी या तड़वी कहलाए।"

Reference: पृष्ठ संख्या 30 पुस्तक-गुजरात के आदिवासी, लेखकः विमल शाह, वर्ष 1968

तथ्यों का आधार :

तथ्यों का आधार :

1. महमूद बेगड़ा या महमूद शाह प्रथम (जन्म 25 मई 1458 23 नवंबर 1511) गुजरात सल्तनत के प्रमुख सुल्तान थे। 1479 में महमूद शाह ने खिची चौहान राजपूतों (जो खुद को रावल कहते थे) के कब्जे वाले चंपानेर (पावागढ़) को तबाह करने के लिए एक सेना भेजी। चौहानों ने भीषण संघर्ष किया। बीस महीने (अप्रैल 1483-दिसंबर 1484) से अधिक समय तक घेराबंदी चलने के बाद 21 नवंबर 1484 को एक अन्यायपूर्ण युद्ध में पावागढ़ पर विजय प्राप्त की गई।

2. एक पौराणिक कथा के अनुसार पावागढ़ चंपानेर में पाटय वंश के एक राजा जय सिंह शासन करते थे । वह कालका माता के प्रबल उपासक थे और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर कालका माता नवरात्रि के हर नौ दिन यहां गरबा करने आती थीं। एक बार नवरात्रि पर माता स्वयं वेश बदल कर एक सुंदर स्त्री के रूप में गरबा कर रही थी। शराब के नशे में चूर राजा जय सिंह उस स्त्री के रूप पर आसक्त हो गए। उन्होंने

उस सुन्दरी का पल्लू पकड़कर रानी बनने को कहा। सुन्दरी के बहुत समझाने के बाद भी राजा ने अपनी

जिद्द नहीं छोड़ी तो स्त्री ने असली रूप धारण कर लिया और राजा को श्राप दिया कि अगले छह महीने में

तुम्हारा राज्य नष्ट हो जाएगा। मुहम्मद बेगड़ा ने पटाया राजा जयसिंह को हराया और चंपानेर पर विजय

प्राप्त की और वहां अपना राज्य स्थापित किया। राजा जय सिंह पटाया वंश के अंतिम शासक थे ।